(उखड़े हुए लोग ) डा0 दिलीप कुमार झा पत्रकार झारखण्ड। दिनांक —4/6/2024 हमने अपने ही हाथों सें फलते फूलते उस विशाल पारिवारिक व...
(उखड़े हुए लोग )
डा0 दिलीप कुमार झा पत्रकार
झारखण्ड।
दिनांक —4/6/2024
हमने अपने ही हाथों सें फलते फूलते उस विशाल पारिवारिक वृक्ष को बार बार अपने ही हाथों सें काट कर धाराशाई कर दिया जिसके मीठे फल जी भर कर खाते थे और उस विशाल पेड़ की छाया मे चैन की नींद सोते थे। लेकिन जब परिवार के मुखिया जो हमारे दादा और दादी होते थे उनके नियंत्रण सें अपने आप को घर के हर सदस्य आजाद होकर अपनी नौकरी और ब्यवसाय मे लगते ही संयुक्त परिवार सें अलग होकर गांव और परिवार सें दूर अपने पत्नी और बच्चों को लेकर दूर और अलग रहने लगे और सिर्फ अपनी एकल परिवार क़ी दुनिया मे ब्यस्त और मस्त रहने लगे तो पहले परिवार छूटा गांव छूटा सम्बन्ध छूटे और परिवार बिखरता चला गया। गाँव सें दूर होकर हम गांव सें उजड़ गए अपनी जड़ों सें उखड़कर वो विशाल बृक्ष धाराशाई हो गया । एक नए पौधा को लगाकर हमने सींचा संवारा और पौधा हाई ब्रीड पौधा लगाकर हम खुश हो गए। जहाँ रिश्ते क़ी गर्माहट नहीं थी भावनायें मरती जा रही थी सिर्फ स्वार्थ था आगे निकलने क़ी दौड़ थी अपने परिवार और समाज के साथ प्रतियोगिता थी।बात ज्यादा पुरानी नहीं 1970 सें 2005 तक की दास्ताँ है जब एक संयुक्त परिवार होता था। भरा पूरा परिवार जिसमे प्रपितामह (पर दादा) और प्रपितामही (पर दादी )सें लेकर दादा दादी हमारे माता पिता और चाचा चाची भाई बहन के साथ चचेरे भाई बहन बुआ फूफा और हमारे सम्बन्ध सें जुड़े हर लोग दूर होते चले गए।
परिवार के किसी सदस्य की नौकरी लगने सें ऐसा लगता था अब आर्थिक समस्या तो दूर हो जाएगी और सामाजिक रुतबा भी बढ़ेगी कि इसके घर के सदस्य अब आर्थिक रूप सें भी सबल हो गए।नौकरी के प्रारंभिक अवस्था मे पर्व और त्योहारों पर घर आते जाते रहे और परिवार के सभी सदस्य आनंद और उत्साह के साथ त्यौहार मनाते रहे। कुछ दिनों तक घर के मुखिया को आर्थिक सहयोग भी मिलता रहा बच्चे गांव मे ही स्कूल मे पढ़ते और जिंदगी मजे सें सुख और दुख के साथ गुजरती रही।
लेकिन वक्त ने करवट बदली हम अपने पिता माता के साथ नौकरी वाली जगहों पर शिफ्ट हो गये और हर पर्व त्योहारों सें दूर होते गए जो साल मे दो मुख्य त्योहारों पर ही घर आने लगे। बड़े ही खुश होते थे घर के सभी सदस्य उनके लिए कपडे फल मिठाइयाँ कि सौगात लेकर ही गांव आते थे। ये सिलसिला चलता रहा घर सें जाते वक्त घर का चावल चूड़ा और अन्य दलहन कि फसले भी साथ लेकर आते रहे। घर मे कोई सामूहिक यज्ञ या कार्यक्रम होता था उसमे बराबर के हिस्सेदार होते रहे। लेकिन गांव और सम्बन्ध रिश्तेदारों सें दूरियां बढ़ने लगी।
फिर कालांतर मे चाचा कि भी नौकरी लगी और वो भी अपने नौकरी वाले स्थान पर अपने बीबी बच्चों के साथ शिफ्ट कर गए और उनका भी वही रवैया होता था जैसा की हमलोगों ने किया और अब घर मे रह गए घर के बुजुर्ग और जिनकी मजबूरी थी घर मे रहना। परिवार के टूटने का सिलसिला जारी रहा। जो बाहर नौकरी मे होते उनके रिश्तेदार अब उन्ही के पास जाने लगे।अब घर और गांवके लोग और सगे सम्बंधियों सें रिश्तों मे दूरी बढ़ने लगी घर सें जुड़े सदस्य अपने हिस्से कि जमीन और अनाज मे अपनी भागीदारी की मांग करने लगे प्रेम और रिश्तों के धागे टूटने लगे बुजुर्गों कि अनदेखी कर अब अपनी एकल परिवार कि आवश्यकता महसूस क़ी जाने लगी। घर और जमीन के टुकड़े बँटने लगे सारा सामान बँटने लगा और घर सें ही टूटकर एक नये घर का निर्माण हुआ और परिवार के मुखिया का नाम परिवर्तित हो गया। गांव मे अब लोग बुजुर्ग मुखिया को भूलने लगे और उनका प्रभाव भी घटने लगा। नौकरी भी देखनी है और एक नये समाज सें जुड़कर उसमे अपनी पहचान बनाने कि कोशिश शुरू हुई थी। परिवार बिखरा घर बिखरा समाज बिखरा गांव बिखरा और हम अकेले हो गए जहाँ न गम मे कोई हमारे साथ था न हमारे खुशियों मे कोई खुश था। हम ब्यावसाई बन गए रिश्ते और सम्बन्ध हम नफे और नुकसान के आधार पर तय करने लगे। किसी दिन सूचना मिली घर के बुजु र्गों कि हालत खराब है हमने सिर्फ दिखावे के लिए अपना समय और कुछ खर्च कर अपने कर्तब्य सें मुक्त हुए और एक दिन सुचना मिली बुजुर्ग स्वर्ग सिधार गए। परिवार के सभी सदस्यों ने उनकी मुक्ति हेतु जो भी करना था किया और हम अपनी एकल परिवार मे गुम हो गए। कालांतर मे
समय बदला बच्चे बड़े हो गए उनके भी जॉब लग गए उनकी भी शादियां हुई और फिर हम सिर्फ दो बुजुर्ग पति और पत्नी अकेले रह गए। पत्नी कि मृत्यु हो गई और हम ब्रिधाश्रम पहुँच गए जहाँ अपने मौत का इंतजार हमारे जैसे कई और बुजुर्ग कर रहे थे एक एक कर वो भी साथ छोड़ते गए और हम सोचते रहे हमसे कहाँ और कौन सी गलती हुई थी।
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